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++राजस्थान में नर्क का दूसरा नाम है नरेगा

अगर भ्रष्टाचार नर्क है तो इस नर्क का दूसरा नाम नरेगा ही होना चाहिए. कम से कम राजस्थान की हकीकत यही है. देश के ग्रामीण विकास मंत्री सीपी जोशी राजस्थान से आते हैं. यही वह मंत्रालय है जो मनरेगा को देशभर में लागू करता है. लेकिन विडम्बना देखिए कि राजस्थान में मनरेगा के ऊपर जो भी सर्वे आ रहे हैं वे सब इसे भ्रष्टतम व्यवस्था साबित कर रहे हैं. पहले सोशल आडिट में यह बात सामने आयी और अब एक सर्वे नरेगा की पोल खोल रहा है.

हाल में ही हुए एक सर्वे में राजस्थान में सरकारी स्तर पर जिला प्रमुख और प्रधानों से ये जानने की कोशिश की गई कि क्या मनरेगा में महाधोटाला है? जब प्रधानों और सरपंचों से यह सवाल पूछा गया तो वे बेचारे सच कह गये. या फिर कहें कि प्रश्नावली में कुछ उलझ गये. प्रदेश के 87 फीसदी जिला प्रमुखों और प्रधानों ने मान लिया है कि नरेगा में महाघटिया स्तर के काम हो रहे हैं. इतना ही नहीं 98 फीसदी ने तो कह दिया कि ग्राम सभा में केवल खानापूर्ति के अलावा कुछ नहीं होता है.

ये सच बहुत कडवा है. लोकतंत्र की पहली सीढी है पंचायतीराज. जिसमें ग्राम पंचायत से जिला परिषद तक का पूरा तंत्र आता है. ग्राम सभा ही वो मंच है जो गॉव के विकास की इबारत लिखता है. ऐसे में पंचायतीराज के मुखिया ही ये कहे कि ग्राम सभा खानापूर्ति से अधिक कुछ नहीं है. तो सवाल खडा होता है कि आखिर हो क्या रहा है. और क्यों हो रहा है? इसके पीछे की कहानी बड़ी अजीब है. मनरेगा (महात्मा गांधी ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना का संक्षिप्त नाम) के आने के बाद पहली बार हुए पंचायतीराज के चुनावों पने इस बात को प्रमाणित भी कर दिया है. 20 जनवरी से ११ फरवरी तक चली पंचायतीराज की चुनाव प्रक्रिया में इस बार सरपंच, प्रधान और जिला प्रमुख बनने के लिए लाखों करोडों रूपये पानी की तरह बहाये गये. तो फिर वो ये क्यों न माने की नरेगा में भ्रष्टाचार है और ग्राम सभा एक औप चारिकता से अधिक कुछ नही है. विकास के लिए धन चाहिए. योजना का खाका चाहिए. फिर उसका क्रियांवयन. ऐसा कम ही होता है कि ये सब अधिकार किसी एक एजेंसी को मिल जाये. लेकिन है. नरेगा एक ऐसा ही विचार है. जिसने गॉव के लोगों को सीधे ही पैसा,योजना का खाका बनाना और उसका क्रियांवयन एक साथ करने का अधिकार दे दिया.

इस सर्वे में इन जन प्रतिनिधियों ने माना है कि मनरेगा के अन्तर्गत जिन आधारभूत सुविधाओं का ढिढोरा पीटा जाता है उतना जमीन पर है नहीं. 21 फीसदी का मानना है कि कार्यस्थल पर पानी की कोई व्यवस्था नहीं रहती है. 28 फीसदी का मानना है कि मैडीकल सुविधा के नाम खानापूर्ति होती है. 43 फीसदी का मानना है कि महिला श्रमिकों के बच्चों को पालना सुविधा तक उपलब्ध नहीं रहती है. तो 39 फीसदी का मानना है कि मजदूरों के लिए छाया की कोई व्यवस्था नहीं की जाती है. इतना तक तो ठीक है 42 फीसदी का तो ये कहना है कि नरेगा के पक्के कामों के लिए खरीदा गया सीमेंन्ट,बजरी,ग्रेवल का 20 प्रतिशत भाग तो कार्यस्थल से गायब ही हो जाता है. 53 फीसदी ने माना है कि नरेगा में फर्जी जॉब कार्ड है. जिला प्रमुख और प्रधानों ने महानरेगा के कामों में भ्रष्टाचार और लापरवाही के लिए भी मैटों को सबसे अधिक जिम्मेदार माना है. इनके साथ ही 22 प्रतिशत पीओ को, 13 प्रतिशत जेईएन, 8 प्रतिशत सचिव, 7 प्रतिशत सचिव, 6 प्रतिशत कलक्टर व डी ओ को तथा ४-४ प्रतिशत सीईओ व मजदूरों को जिम्मेदार माना है.

इस सर्वे में एक बात को बडी साफगोई से माना गया है कि मनरेगा में "रेवडियॉ" बंट रही है. वैसे रेवड़ियों को लेकर एक बडी प्रसिद्व कहावत भी है. "अंधा बाटैं रेवडी फिर फिर अपने न कू दे" कुछ ऐसे ही हालात नरेगा के है. सर्वे में शामिल जनप्रतिनिधियों में से 58 प्रतिशत से माना है कि मजदूरों को बगैर पूरा काम किये भुगतान मिल रहा है. इसके लिए वो जेईएन को जिम्मेदार मानते है. तो ४० प्रतिशत का मानना है कि इसके लिए मैट जिम्मेदार है. इस सर्वे की सबसे अहम बात ग्राम सभा को महज खानापूर्ति मानना है. वैसे तो महत्वपूर्ण मुददों तक में संसद की कुर्सियां तक देश में खाली दिखाई पड ही जाती है. सर्वे में शामिल लगभग सभी जनप्रतिनिधियों ने ये माना है कि ग्राम सभा केवल एक नाम की औपचारिकता है. पंचायत की बैठकों तक में कोरम पूर्ति नहीं होती है. कहने को गॉव के स्तर पर पारदर्शिता की बातें की जाती है. लेकिन जमीनी हकीकत ये है कि पंचायतीराज को आरक्षण के बाबजूद प्रभावशाली लोगों ने अपने हाथों में ले रखा है. जिससे कोरम मात्र खानापूर्ति बनकर रह गया है.

ऐसे में केवल धन और अधिकार देने मात्र से पंचायतीराज को मजबूत नहीं किया जा सकता है. जब तक गॉव की जनता खुद आगे आकर अपने मत और अधिकारों के प्रति जागरूक नहीं होगी. तब तक "गॉव की सरकार" जैसे जुमले गढे जाते रहेगें और अपने ही लोग जनता को बेबकूफ बनाते रहेगें. पंचायतीराज के इन जन प्रतिनिधियों ने एक बडी बात कहने की कोशिश की है. ९४ प्रतिशत का मानना है कि पंचायतीराज सस्थाओं के चुनाव लडने के लिए न्यूनतम शैक्षणिक योग्यता तय की जानी चाहिये. ७५ प्रतिशत का तो मानना है कि ये योग्यता १० वीं या उससे कहीं अधिक होनी चाहिये,और उसे भी अनिवार्य कर दिया जाना चाहिये. इन प्रधान और जिला प्रमुखों ने एक बात की ओर और इशारा किया है कि इन पदों के चुनाव भी सरपंचों की ही तर्ज पर सीधे कराये जाने चाहिये. ऐसा मानने वालों का प्रतिशत 72 है. और इस बात को लेकर के प्रदेश में एक पहल भी शुरू हो चुकी है. हाल ही में मुख्यमंत्री ने स्वंय इस बात को आगे बढाया है.

Source वेब/संगठन: visfot.com

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