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++नरेगा यानी लूट की छूट

ग्लैडसन डुंगडुंग, रांची से

राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी कानून यानी नरेगा का मतलब अगर पता करना हो तो आपको झारखंड के लातेहार जिले में जाना चाहिए. आप चाहें तो पलामू भी घूम सकते हैं और गढ़वा भी और...! सच तो ये है कि आप अपनी सुविधा से झारखंड के किसी भी इलाके में नरेगा का हाल जान सकते हैं, जिसके बारे में अब एक जुमला बहुत मशहूर हो चुका है- “नरेगा जो करेगा, सो मरेगा.”

अस्पताल में तापस सेन

अस्पताल में तापस सोरेन


राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी कानून 2005 ग्रामीण क्षेत्र में रहनेवाले भूमिहीन, मजदूर एवं लघु कृषक परिवारों के आजीविका को सुरक्षित रखने के उद्देश्य से रोजगार अभाव के समय 100 दिनों की रोजगार उपलब्ध करने के लिए बनाया गया था. लेकिन झारखण्ड में नरेगा का अर्थ कुछ और ही बन गया है. नरेगा की वजह से तापस सोरेन, तुरिया मुंडा और ललित मेहता जैसे कई लोगों को अपनी जान गवांनी पड़ी, ज़िससे राज्य में हलचल मच गई तथा 'नरेगा जो करेगा सो मरेगा'' जैसा नारा झारखण्ड के गांव-गांव में छा गया.

सरकारी पदाधिकारी, ठेकेदार और बिचौलियों के गंठजोड़ को देखते हुए अब यह मान लिया गया है कि अगर नरेगा से जुड़ना है तो चुपचाप जो मिल रहा है, उसी में संतोष करना होगा. अगर गलती से कोई सवाल उठाता है तो उसे जान से हाथ धोना पड़ेगा.

अब तो सरकार और नौकरशाह भी खुलकर बोल रहे हैं कि नरेगा के पैसों की लूट हो रही है. लेकिन इस लूट को कैसे रोकना है, यह कोई नहीं बता रहा है. यह देखना महत्वपूर्ण है कि कैसे नरेगा ग्रामीणों का रोजगार योजना बनने के बजाये सरकारी पदाधिकारी, ठेकेदार और बिचौलियों के लिए लूट योजना बन कर रह गई है.

नरेगा कार्यक्रम का प्रथम चरण 2 फरवरी 2006 को देश भर के 200 जिलों में प्रारंभ किया गया था, जिसमें झारखण्ड के 20 जिले भी शामिल थे. इसके बाद दूसरे एवं तीसरे चरण में झारखण्ड के और 2-2 जिलों को इसमें शामिल कर राज्य के पूरे 24 जिलों में नरेगा को लागू किया गया.

भारत सरकार के ग्रामीण विकास मंत्रालय द्वारा उपलब्ध आंकड़ा के अनुसार नरेगा के तहत झारखण्ड में 15 सितंबर, 2009 तक 8.73645 लाख लोगों को 314.57 लाख दिन का रोजगार उपलब्ध कराया गया है, जिसमें 15.1 प्रतिशत (47.49 लाख) दलित, 42.6 प्रतिशत (134.02 लाख) आदिवासी एवं 32.7 प्रतिशत (102.87 लाख) महिलाओं को रोजगार दिया गया है.

भारत सरकार ने नरेगा के तहत झारखण्ड सरकार को 1397.37 करोड़ रूपये का आवंटन किया है, जिसमें से मात्र 37.1 प्रतिशत (518.87 करोड़) रूपये ही खर्च हो सका है. इसके तहत 114009 कार्य लिया गया जिसमें से मात्र 22.8 प्रतिशत (26062) कार्य पूरा किया गया है तथा 77.2 प्रतिशत (87947) कार्य अभी तक जारी है, जिससे यह साफ पता चलता है कि राज्य में नरेगा अभी भी कछुआ चाल से ही चल रही है.

नरेगा के कछुआ चाल को समझने के लिए आंकड़ों के गणित को थोड़ा और विस्तार से समझने की जरूरत है. भारत सरकार के ग्रामीण विकास मंत्रालय की रिर्पोट दर्शाती है कि वितीय वर्ष 2008-2009 में झारखण्ड में कुल ग्रामीण परिवारों की संख्या 3736526 थी, जिसमें 1655281 परिवार गरीबी रेखा के नीचे जीवन बसर करते हैं. इनमें से कुल 2710647 परिवारों को नरेगा के तहत 100 दिनों का रोजगार देने की योजना थी. इसके लिए भारत सरकार ने झारखण्ड सरकार को 180580.1 लाख रूपये आवंटित किया था तथा विगत वर्ष की उपलब्ध राशि को मिलाकर कुल आवंटित राशि 236337.4 लाख रूपये थी.


राज्य सरकार ने इसके तहत 3375992 जॉब कार्ड जारी किया, लेकिन सिर्फ 46.69 प्रतिशत (1576348) परिवारों को ही रोजगार दिया गया, जिसमें से सिर्फ 56.77 प्रतिशत (134171.7 लाख रूपये) राशि ही खर्च किया गया तथा 102165.7 लाख रूपये बचा रहा जिससे और 10 लाख लोगों को 100 दिन का काम दिया जा सकता था.

वित्तीय वर्ष 2009-2010 का आकलन करने से पता चलता है कि इस वर्ष नरेगा के तहत 2864120 परिवारों को काम देने की योजना है, जिसके लिए भारत सरकार ने 45333.29 लाख रूपये आवंटित किया है तथा विगत वर्ष की शेष राशि को जोड़कार कुल 148153.9 लाख रूपये आवंटित हैं.

राज्य सरकार ने अब तक 3494390 लोगों को जॉब कार्ड जारी किया है लेकिन सिर्फ 25 प्रतिशत (873645) परिवारों को ही रोजगार दिया गया है, जिसमें 35.02 प्रतिशत (51887.28 लाख रूपये) राशि खर्च की गयी है और 96266.57 लाख रूपये शेष है. लेकिन इस राशि से भी गरीबों को राहत मिलने की उम्मीद कम है क्योंकि कुछ ही महीने में विधानसभा का चुनाव होना है, जिसमें सारे सरकारी पदाधिकारी व्यस्त हो जायेंगे. जाहिर है, इसके बाद नरेगा का काम खटाई में पड़ सकता है.

आंकड़ों के खेल को छोड़कर अगर हकीकत की ओर जायेंगे तो स्थिति और भी शर्मनाक है. राज्य में मजदूरी भी एक तरह की नहीं है. सरकारी आंकड़ों के अनुसार मजदूरी जिला स्तर पर निर्धारित हो रही है जो 78.39 रूपये से लेकर 114.62 रूपये तक है.

इसमें सबसे ज्यादा हजारीबाग जिले में 114.62 रूपये एवं गुमला जिले में सबसे कम 78.39 रूपये दिये जा रहे हैं. महिला-पुरूष के बीच मजदूरी को लेकर भेदभाव भी बरकरार है. कई जिलों में महिलाओं को पुरूषों से कम मजदूरी दी जा रही है. लेकिन हद तब हो जाती है जब पोस्ट ऑफिस या बैंकों द्वारा भुगतान करने के बावजूद मजदूरों की कमाई को ठेकेदार और बिचौलिये हड़प लेते हैं. जॉब कार्ड एवं मस्टर रोल में गलत आंकड़े भरे जाते हैं तथा काम भी ठीक ढ़ंग से पूरा नहीं किया जाता है.

लगभग पूरे राज्य में नरेगा के कामों में रिश्वत की राशी तय है और सारा खेल बेशर्मी के साथ चल रहा है. नरेगा के अन्तर्गत चलने वाली प्रत्येक योजना में सरकारी पदाधिकारियों का हिस्सा (प्रतिशत में) बंटा हुआ है. इसमें 4 प्रतिशत पंचायत सेवक, 5 प्रतिशत बीडीओ, 5 प्रतिशत जेई और उपर के पदाधिकारियों का हिस्सा है सो अलग.

दूसरी लूट मजदूरी को लेकर है. काम के एवज में मजदूरों को कम पैसा दिया जाता है लेकिन मस्टर रोल एवं जॉब कार्ड में उचित मजदूरी दर्शायी जाती है. इसी तरह कार्य दिवस को लेकर भी भारी गड़बड़ी होती है. मजदूरी कम दिनों का भुगतान किया जाता है लेकिन मस्टर रोल एवं जॉब कार्ड में कार्य दिवस ज्यादा दर्शाया जाता है. इस तरह से मजदूरों का पैसा ठेकेदारों एवं बिचौलियों के जेब में चला जाता है. इतना ही नहीं जॉब कार्ड बनाने के नाम पर भी मजदूरों से पैसा वसूला जाता है. यानी नरेगा के हर मोड़ पर लूट का चेक पोस्ट लगा हुआ है.

नरेगा में भ्रष्टाचार के खिलाफ एक कठोर कानून बनाना चाहिए, जिसमें अपराधियों को सजा के रूप में जेल और सरकारी खजाने से लूटे गये पैसे का दस गुना वापसी का प्रावधान रखा जाना चाहिए.


अफसोसजनक यह है कि नरेगा लूट के बारे में विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका सभी को पता है लेकिन लूट लगातार और चरम पर जारी है.

सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के.जी. बालकृष्णन कहते हैं कि नरेगा बिचौलियों के चंगुल में है. इधर झारखण्ड के राज्यपाल के.एस. नारायणन भी नरेगा को लेकर कई तरह के प्रश्न खड़े कर चुके हैं. श्री नारायणन तो जिले के कलेक्टर यानी उपायुक्तों की क्लास भी लेते रहे हैं. राज्यपाल के सलाहकार जी. कृष्णन ने भी स्पष्ट शब्दों में कहा है कि नरेगा योजना को लागू करने में सबसे भ्रष्ट जेई हैं तथा बीडीओ उनसे भी भ्रष्ट हैं और इन्हें ग्राम सभा पर भरोसा नहीं है.

लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि नरेगा लूट को रोकने के लिए कोई ठोस उपाय क्यों नहीं किया जा रहा है? क्या नरेगा लूट का रोना रोने से ही सबकुछ ठीक हो जायेगा? क्या इस लूट के लिए सिर्फ निचले स्तर के सरकारी पदाधिकारी जिम्मेवार है?

यद्यपि नरेगा के तहत ग्रामसभा एवं पंचायतों को कई अधिकार दिये गये हैं लेकिन झारखण्ड में इसे जानबूझकर लागू नहीं किया जाता है. सरकारी पदाधिकारी नरेगा लूट को जारी रखना चाहते हैं, इसलिए पारंपरिक ग्रामसभाओं को मान्यता ही नहीं दे रहे हैं.


नरेगा के काम प्रखण्ड कार्यालय के जिम्मे से निकाल कर इसकी जिम्मेवारी पारंपरिक ग्राम सभाओं को अगर दिया जाये तो इससे प्रखंड कार्यालयों में चल रही लूट और रिश्वत का धंधा भी खत्म होगा. जॉब कार्ड निर्गत, मस्टर रोल तैयार करना, योजना का चयन, कार्यान्वयन एवं मूल्यांकन का पूर्ण अधिकार ग्राम सभा को हो.

रोजगार गारंटी योजना में भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई लड़ रहे क्रियावादियों और समाजसेवियों का मानना है कि इसके नरेगा में भ्रष्टाचार के खिलाफ एक कठोर कानून बनाना चाहिए, जिसमें अपराधियों को सजा के रूप में जेल और सरकारी खजाने से लूटे गये पैसे का दस गुना वापसी का प्रावधान रखा जाना चाहिए. ऐसे मामलों के समयबद्ध तरीके से त्वरित निष्पादन के लिए एक विशेष न्यायालय की व्यवस्था की जानी चाहिए. लेकिन सबसे बड़ा सवाल यही है कि क्या हमारे जनप्रतिनिधि इसके लिए तैयार होंगे ? आखिर राज्य में लूट संस्कृति तो उनकी ही देन है.

++सरकारी योजना पर जनता की नज़र

संदीप पांडेय


राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी एक्ट 2005 नागरिकों को इस एक्ट के अधीन किए गए कार्य का सोशल ऑडिट करने का अधिकार प्रदान करता है. इस एक्ट के लागू होने से पहले तक नागरिकों के पास संबंधित अधिकारी के समक्ष कमियों और अभावों के बारे में शिकायत करने के अलावा और कोई चारा नहीं था.

अब यह उस अधिकारी के विवेक पर निर्भर करता कि वह शिकायत का संज्ञान लेते हुए इस पर कार्रवाई करे या फिर इसे कूड़ेदान में डाल दे. नागरिक महज मूकदर्शक थे और शिकायत पर कार्रवाई करना या इससे आंख फेर लेना यह अधिकारियों का विशेषाधिकार था. इस लिहाज से ग्रामीण रोजगार गारंटी एक्ट के तहत चल रहे विकास कार्यों का आम नागरिकों द्वारा सोशल ऑडिट करने का अधिकार भारतीय लोकतंत्र में एक क्रांतिकारी कदम है. हो सकता है आगे चलकर लोग सरकार के अन्य विकास कार्यक्रमों के लिए भी इसी तरह के सोशल ऑडिट के आयोजन की मांग करने लगें.

एक्ट के अधीन रोजगार गारंटी योजना के तहत हुए कामकाज से संबंधित जानकारी वास्तविक कीमत पर 7 दिनों के भीतर मुहैया कराई जानी चाहिए, लेकिन क्या यह तब भी जनता के लोकतांत्रिक अधिकारों की जीत कही जाए जबकि उन्हें यह जानकारी एक-डेढ़ साल बाद मिले!


भारत में प्रशासनिक कामकाज का तरीका यह है कि सत्ता में रहने वाले लोगों के प्रति खुद को जवाबदेह महसूस नहीं करते. सरकारी मशीनरी से जुड़े लोग सोचते हैं कि काम करना, निर्णय करना और जनता के खजाने को खर्च करना उनके विशेष अधिकारों के तहत आता है. इसलिए यह कोई आश्चर्य की बात नहीं कि लोगों द्वारा विभिन्न योजनाओं से संबंधित अधिकारियों और सरकारी विभागों से जानकारी मांगने से अधिकारी भारी दबाव में आ गए हैं. वे इस तरह से जवाबदेही लेने के आदी नहीं हैं.

इस दिशा में पहला कदम उत्तरप्रदेश के उन्नाव जिले के एक निवासी यशवंत राव ने उठाया. उसने 4 दिसंबर 2006 को सूचना का अधिकार कानून(आरटीआई) का इस्तेमाल करते हुए मियागंज के ब्लॉक डेवलपमेंट ऑफिसर से रोजगार गारंटी योजना के तहत हुए कामकाज की जानकारी मांगी. सकारात्मक जवाब न मिलने पर उसने यूपी स्टेट इंफॉर्मेशन कमीशन के समक्ष एक शिकायत दर्ज करा दी. इसके बाद उसे ब्लॉक डेवलपमेंट ऑफिसर की ओर से एक पत्र मिला, जिसमें उससे वांछित दस्तावेज की कॉपी पाने के लिए 1,58,400 रुपए जमा करने के लिए कहा गया था.

आरटीआई एक्ट के तहत यदि एक महीने के भीतर जानकारी मुहैया कराई जाती है तो ग्राही को 2 रुपए प्रति पेज के हिसाब से जमा करने होते हैं, लेकिन ब्लॉक डेवलपमेंट ऑफिसर ने 66 ग्राम पंचायतों में एनआरईजीएस के तहत हुए कामकाज की जानकारी मुहैया कराने के लिए मनमाने ढंग से 2400 रुपए प्रति ग्राम पंचायत के लिहाज से तय कर दिए. यूपी स्टेट इंफॉर्मेशन कमीशन के समक्ष एक साल से ज्यादा समय तक चले इस केस में 10 सुनवाइयों के बाद आखिरकार ब्लॉक डेवलपमेंट ऑफिसर को आवेदक यशवंत को समस्त जानकारी मुफ्त में मुहैया कराने का आदेश दिया गया. अप्रैल 2008 में 66 में से 65 ग्राम पंचायतों में एनआरईजीएस कामकाज की जानकारी आखिरकार यशवंत को मुहैया कराई गई.

यद्यपि एक्ट के अधीन रोजगार गारंटी योजना के तहत हुए कामकाज से संबंधित जानकारी वास्तविक कीमत पर 7 दिनों के भीतर मुहैया कराई जानी चाहिए, लेकिन क्या यह तब भी जनता के लोकतांत्रिक अधिकारों की जीत कही जाए जबकि उन्हें यह जानकारी एक-डेढ़ साल बाद मिले! अधिकारियों ने हर कदम पर इस प्रक्रिया को रोकने या लटकाने की अपनी ओर से हरसंभव कोशिश की लेकिन आखिरकार उन्हें एनआरईजीए और आरटीआई एक्ट के अधीन कानूनी प्रावधानों का अनुसरण करना ही पड़ा.

यह देखते हुए मियागंज ब्लॉक के स्थानीय लोगों और दूसरे नागरिकों ने सामाजिक संगठनों की मदद से मई में सभी ग्राम पंचायतों में अधिकारियों द्वारा कामकाज से संबंधित मुहैया कराई गई जानकारियों के प्रमाणन के लिए सोशल ऑडिट करना शुरू कर दिया. इस इलाके में अब तक इस तरह की लोकतांत्रिक और अधिकारपूर्ण कार्रवाई देखने या सुनने को नहीं मिली.

इस सोशल ऑडिट में उत्तर प्रदेश के लखनऊ, हरदोई, कानपुर, बनारस, गाजीपुर और बलिया जैसे दूसरे शहरों के नागरिकों के अलावा हरियाणा और राजस्थान के कुछ लोगों ने भी सक्रिय रूप से भाग लिया और तकरीबन 100 लोगों के नेतृत्व में उन्नाव के मियागंज ब्लॉक के ब्लॉक डेपलपमेंट ऑफिस में सोशल ऑडिट का यह काम संपन्न हुआ. यह सारी कवायद 21 से 26 मई तक छह दिन तक लगातार चली और इसके आखिर में तकरीबन 1000 लोग यह सुनने के लिए जुटे कि सोशल ऑडिट के पास इस ब्लॉक की 66 में से 58 ग्राम पंचायतों का भ्रमण करने के बाद आखिर कहने के लिए क्या है. कई राज्य व जिलास्तरीय अधिकारियों के अलावा अनेक ग्राम पंचायतों के मुखिया भी इस सार्वजनिक सुनवाई के दौरान उपस्थित थे.

दस टीमों ने इन ग्राम पंचायतों में छह दिन बिताए. इस दौरान उन्होंने ग्रामीणों से बातचीत की और कार्यस्थलों का निरीक्षण किया. आम निष्कर्ष यही निकलकर सामने आए कि लोग इस एक्ट के प्रावधानों के बारे में नहीं जानते थे और प्रशासन लोगों को जागरूक करने के लिए कुछ खास नहीं कर रहा था.

कामगारों के हाथ में जॉब कार्डस नहीं थे (ज्यादातर गांवों में इन्हें सोश्यल ऑडिट टीम के पहुंचने से ठीक पहले बांटा गया) मस्टर रोल्स और जॉब कार्डस में कामगारों के दिनों को बढ़ा-चढ़ाकर दर्ज किया गया और वृक्षारोपण के काम में व्यापक पैमाने पर धांधली नजर आई. एकमात्र अच्छी बात यह थी कि न्यूनतम मजदूरी के हिसाब से मजदूरों को पूरा भुगतान किया गया. हालांकि इसे काम के दिनों की संख्या को बढ़ाकर बराबर कर दिया गया जिसका मतलब था कि दिनों के साथ-साथ कामगारों की मजदूरी का भी नुकसान.

अधिकारियों ने इस बात की तारीफ की कि लोग खुलकर बोल रहे थे. यद्यपि ऑडिट के दौरान ग्राम प्रधानों ने धमकी दी कि यदि सोशल ऑडिट में उन्हें नीचा दिखाया गया तो वे इस रोजगार गारंटी योजना से अलग हो जाएंगे. वास्तव में शुरुआती चार दिन ग्राम प्रधानों ने न सिर्फ ग्रामीणों और ऑडिट टीम को धमकाया, बल्कि उन्होंने इस प्रक्रिया में अड़ंगा डालने की भी कोशिश की. हालांकि बाद में ज्यादातर प्रधानों को समझ में आ गया कि इस योजना के सोशल ऑडिट का मूल उद्देश्य पथभ्रष्ट ग्राम प्रधानों के खिलाफ कोई कदम उठाना नहीं है, वरन यह समझना है कि इस योजना से क्या उम्मीद थी. उन्होंने लोकतंत्र और लोगों के अधिकार के बारे में पूरी आस्था जताई और ऑडिट में सहयोग का आश्वासन दिया.

++नरेगा सरकार की नहीं श्रमिकों की योजना

नरेगा सरकार की नहीं श्रमिकों की योजना

सिरोही। जिले में नरेगा में तीन आपराघिक प्रकरण में से एक का निस्तारण हो चुका है। जबकि शेष पर कार्रवाई जारी है। कलक्ट्री सभागार में बुधवार को राजस्थान उच्च न्यायालय के न्यायाघिपति एवं राजस्थान विघिक सेवा प्राघिकरण के कार्यकारी अध्यक्ष करणसिंह राठौड़ के पूछने पर पुलिस अधीक्षक ने उक्त जानकारी दी।

यहां न्यायिक, प्रशासनिक व पुलिस अघिकारियों की बैठक में न्यायाघिपति राठौड़ ने कहा कि नरेगा राजस्थान के लिए एक वरदान है। लेकिन, ग्रामीणों में न्यायिक जानकारी का अभाव है। इसके लिए न्यायिक अघिकारियों को समय-समय पर शिविरों का आयोजन कर कानूनी जानकारियां देनी होगी।

उन्होंने बताया कि मजदूरों को विशेष रूप से यह बात समझानी होगी कि नरेगा योजना सरकार की नहीं उनकी है। उन्होंने जिले में नरेगा में आंशिक शिकायतों पर प्रशासन की पीठ थपथपाते हुए कहा कि अघिकारियों को कठिन परिस्थितियों में झिझकने से नहीं डरना चाहिए। जिला कलक्टर पी. रमेश ने जिले में राजस्व मामलों के निस्तारण की जानकारी दी। एडीजे फास्ट ट्रेक अयूब खान, जिला विघिक सेवा प्राघिकरण के सचिव नेपालसिंह ने भी नरेगा मजदूरों को दी जाने वाली कानूनी जानकारियों का ब्योरा पेश किया।

बताया नरेगा का खाका
बैठक में जिला परिषद के अतिरिक्त मुख्य कार्यकारी अघिकारी देवानंद माथुर ने बताया कि जिले की 151 ग्राम पंचायतों के 492 गांवों में नरेगा का कार्य संचालित है। 1 लाख 61 हजार परिवार नरेगा का लाभ ले रहे हैं। उन्होंने बताया कि नरेगा के संबंध में प्राप्त 200 में से 180 शिकायतों का निस्तारण किया जा चुका है।

++उप्र में नरेगा का बुरा हाल: राहुल

विजय उपाध्याय

अंबेडकर नगर.लखनऊ । rahul2_288कांग्रेस ने उत्तर प्रदेश के मायावती के गढ़ में अपना असर दिखाने में कामयाब रही है। बुधवार को तमाम विवादों व रोकटोक, कुंभी का शाही स्नान के साथ 45 डिग्री तापमान के बीच पार्टी ने एक सफल रैली की है। रैली में जुटी उत्साहित भीड़ नारे लगा रही थी राहुल तुम संघर्ष करो हम तुम्हारे साथ है। बुधवार को बसपा ने भी कांग्रेस के मुकाबले डा.अंबेडकर जयंती और महिला आरक्षण में दलित महिलाओं के कोटे की मांग को लेकर प्रदर्शन कार्यक्रम आयोजित किया था।

रैली को संबोधित करने के पहले राहुल ने मंच पर रखी डा.अंबेडकर व महात्मा गांधी की तस्वीरों को फूल चढ़ाये। अपने भाषण में राहुल गांधी ने प्रदेश में सत्तारूढ़ मायावती के नेतृत्व की बसपा सरकार पर सधे हुऐ हमले किये। उन्होने मायावती सरकार को नाकाबिल-नाकारा सरकार साबित करने की कोशिश की। राहुल ने कहा कि केन्द्र से जो भी पैसा भेजा जाता वो लखनऊ तो पहुंचता है लेकिन अंबेडकर नगर नहीं पहुंचता।

जोरदार भीड़ और उसके उत्साहजनक तेवर से गदगद राहुल ने प्रदेश सरकर पर आरोप जड़ा तो समाधान का रास्ता भी बताया। रैली में युवाओं की मौजूदगी से वे बेहद खुश नजर आये।मायावती सरकार पर एक के बाद दूसरा हमला करते हुए उन्होने कहा दुनिया में सबसे बड़ी रोजगार योजना मनरेगा शुरू की इसका सबसे ज्यादा फायदा गरीबों-दलितों को होता है लेकिन उप्र में इसका नामोनिशान नहीं है। जॉब कार्ड बने हैं लेकिन प्रधानों के पास पड़े हुए हैं। जब हम प्रदेश की बसपा सरकार से कहते हैं कि ये रोजगार योजना दलितों-गरीबों के लिए अच्छा कार्यक्रम है तो सरकार कहती है कि इस योजना से किसी को कुछ फायदा नहीं होता।

राहुल यहीं नही रूके उन्होने कहा जब हम कहते हैं शिक्षा का अधिकार दिलवाएंगे, सभी बच्चों को स्कूल भेजेंगे, अंग्रेजी सिखाएंगे तो मायावती सरकार कहती है शिक्षा की जरूरत नहीं है। स्वास्थ्य की जरूरत नहीं है। विकास की जरूरत नहीं है और उसके बाद कहते हैं कि सरकार गरीबों की है। राहुल ने प्रदेश सरकार से सवाल पूछा है कि यदि सरकार गरीबों की है तो हमारे प्रदेश से लोग मुंबई-दिल्ली क्यों जा रहे हैं? क्यों बुंदेलखंड खाली पड़ा हुआ है? उन्होने कहा बुंदेलखंड में हमने करोड़ों रुपये दिए, पैकेज दिया लेकिन जो भी पैसा भेजा जाता है वो लखनऊ तो पहुंचता है लेकिन अंबेडकर नगर नहीं पहुंचता।

राहुल ने कहा पिछले 20-25 सालों में यूपी में धर्म की, जाति की राजनीति खूब चली लेकिन अब यहां नई प्रकार की राजनीति करनी है। वो होगी युवाओं की राजनीति, भविष्य की राजनीति। उसमें सबसे बड़ा सवाल ये है कि हम यूपी के गरीबों को गरीबी से कैसे निकालें। बेरोजगारों को बेरोजगारी से कैसे निकालें। राजनीति को इस सवाल का जवाब देना है। आने वाले समय में ये जवाब निकालना है और राजनीति इसी सवाल से होगी।

अंबेडकरनगर में कांग्रेस की सफलता के खास मायने है, जिले में विधानसभा की पांच सीटों लोकसभा, विधान परिषद व जिला पंचायत हर जगह बसपा का कब्जा है। मायावती मंत्रिमंडल में जिले से तीन मंत्री है। जिले में कांग्रेस लंबे समय से कमजोर हालत में रही है। कांग्रेस को जिले में राजनीति रूप से बेहद कमजोर पार्टी माना जाता रहा है।

जिले की राजनीतिक सच्चई से रूबरू राहुल ने कहा कि मैं जब दिल्ली से आकर दलितों से, गरीबों से मिलता हूं तो विपक्ष के नेता कहते हैं कि राहुल गांधी गांव में क्यों जा रहा है। अपने सवाल का जवाब देते हुए उन्होने कहा राहुल गरीबों के घर इसलिए जाता है क्योंकि वो सोचता है कि हिंदुस्तान की शक्ति गरीबों-पिछड़ों के घर में है। देश का भविष्य गांवों में, गरीबों के हाथ में है।

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