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++संविदा नरेगाकर्मियों को हटाने पर रोक।

राजस्थान हाई कोर्ट ने नरेगा (राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना) के तहत संविदा पर काम कर रहे ग्राम रोजगार सहायकों, सहायक लेखाकारों, कंप्यूटर सहायकों सहित अन्य कर्मचारियों के हटाने की प्रक्रिया पर शुक्रवार को रोक लगा दी। साथ ही पंचायतीराज विभाग के सचिव व निदेशक सहित सीकर के जिला कलेक्टर को कारण बताओ नोटिस जारी किया है।
न्यायाधीश अजय रस्तोगी ने यह आदेश राजेश कुमार यादव व अन्य की ओर से दायर तीन यचिकाओं पर प्रारंभिक सुनवाई करते हुए दिया है। यह आदेश याचिकाकर्ताओं के मामले में ही प्रभावी रहेगा। याचिका में कहा है कि नरेगा के तहत 2008 में विभिन्न पंचायत समितियों में संविदा के आधार पर हजारों रोजगार सहायकों एवं अन्य पदों पर अभ्यर्थियों को नियुक्त किया था।

याचिकाकर्ता भी नीम का थाना पंचायत समिति में नियुक्त किया गया, लेकिन 3 अगस्त, 2009 को राज्य सरकार ने आदेश जारी कर कहा कि रोजगार सहायक व अन्य पदों पर काम कर रहे लोगों की सेवाएं 31 अगस्त से समाप्त की जा रही हैं और इनकी जगह पर प्लेसमेंट एजेंसी के जरिए नियुक्ति की जाएगी। राज्य सरकार के इस आदेश को हाई कोर्ट में चुनौती दी।

याचिकाओं में कहा कि वित्त विभाग ने जुलाई में एक परिपत्र में इन पदों पर प्लेसमेंट एजेंसी के जरिए नियुक्ति कराने का निर्णय लिया है। सरकार का यह निर्णय असंवैधानिक है क्योंकि संविदाकर्मियों को हटाकर उनकी जगह नए संविदा कर्मियों को नियुक्त किया जा रहा है, इसलिए सरकार के आदेश पर रोक लगाई जाए। न्यायाधीश ने याचिकाओं पर सुनवाई कर सरकार को निर्देश दिए हैं कि वह न तो याचिकाकर्ताओं को उनके पदों से हटाए, न उनके पदों पर संविदा के आधार पर नई नियुक्तियां करे। हालांकि न्यायाधीश ने सरकार को यह स्वतंत्रता दी है कि यदि वह चाहे तो इन पदों को नियमित भर्ती से भर सकती है।

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संविदा नरेगाकर्मियों को हटाने पर रोक।
राजस्थान हाई कोर्ट ने नरेगा (राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना) के तहत संविदा पर काम कर रहे ग्राम रोजगार सहायकों, सहायक लेखाकारों, कंप्यूटर सहायकों सहित अन्य कर्मचारियों के हटाने की प्रक्रिया पर शुक्रवार को रोक लगा दी। साथ ही पंचायतीराज विभाग के सचिव व निदेशक सहित सीकर के जिला कलेक्टर को कारण बताओ नोटिस जारी किया है।
न्यायाधीश अजय रस्तोगी ने यह आदेश राजेश कुमार यादव व अन्य की ओर से दायर तीन यचिकाओं पर प्रारंभिक सुनवाई करते हुए दिया है। यह आदेश याचिकाकर्ताओं के मामले में ही प्रभावी रहेगा। याचिका में कहा है कि नरेगा के तहत 2008 में विभिन्न पंचायत समितियों में संविदा के आधार पर हजारों रोजगार सहायकों एवं अन्य पदों पर अभ्यर्थियों को नियुक्त किया था।

याचिकाकर्ता भी नीम का थाना पंचायत समिति में नियुक्त किया गया, लेकिन 3 अगस्त, 2009 को राज्य सरकार ने आदेश जारी कर कहा कि रोजगार सहायक व अन्य पदों पर काम कर रहे लोगों की सेवाएं 31 अगस्त से समाप्त की जा रही हैं और इनकी जगह पर प्लेसमेंट एजेंसी के जरिए नियुक्ति की जाएगी। राज्य सरकार के इस आदेश को हाई कोर्ट में चुनौती दी।

याचिकाओं में कहा कि वित्त विभाग ने जुलाई में एक परिपत्र में इन पदों पर प्लेसमेंट एजेंसी के जरिए नियुक्ति कराने का निर्णय लिया है। सरकार का यह निर्णय असंवैधानिक है क्योंकि संविदाकर्मियों को हटाकर उनकी जगह नए संविदा कर्मियों को नियुक्त किया जा रहा है, इसलिए सरकार के आदेश पर रोक लगाई जाए। न्यायाधीश ने याचिकाओं पर सुनवाई कर सरकार को निर्देश दिए हैं कि वह न तो याचिकाकर्ताओं को उनके पदों से हटाए, न उनके पदों पर संविदा के आधार पर नई नियुक्तियां करे। हालांकि न्यायाधीश ने सरकार को यह स्वतंत्रता दी है कि यदि वह चाहे तो इन पदों को नियमित भर्ती से भर सकती है।

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++नरेगा के नाम एक और कलंक

राजस्थान, देश के गामीण विकास मंत्री का प्रदेश. यहाँ कांग्रेस की सरकार है. प्रदेश में पार्टी के अध्यक्ष भी मंत्री जी है. अपना पूरा समय भी प्रदेश को दे रहे है. इतना ही नहीं नरेगा को बजट देने में कोई कोताही उनके यहाँ नहीं है. हर एक पंचायत को औसत सालाना एक करोड का बजट दिया है.

उसी राजस्थान में घोटालों की लम्बी फेहरिस्त है. कलक्टर से लेकर मैट सब पर आरोप है. मास्टर,थानेदार और डाक्टरों के नाम से भुगतान हो रहे है. उसी राजस्थान में पंचायतीराज के हाल में सम्पन्न चुनावों के बाद नवनिर्वाचित सरपंचों को नरेगा प्रशिक्षण दिया गया. प्रशिक्षण की गुणवत्ता और सरपंचों के विचारों से तो लगता है हालात बहुत खराब है. दो दिवसीय प्रशिक्षण का आखों देखा हाल देखकर तो ऐसा ही लगता है.

कार्यशाला के शुभारम्भ का संचालन भी उन्होंने किया. कुछ लच्छेदार कशीदे भी पढे. तो बाद में प्रशिक्षणार्थियों के बीच बोले भी वही. कहा ये कानून ऐसा है जिसमें जेल भी हो सकती है. आपको धुँआधार काम कराने है. काम करवाओगे तभी कुछ...... जब हमने उनसे प्रशिक्षण में उनकी भूमिका के बारे में पूछा. तो साफ जबाब था. यहाँ कोई बोलने वाला नहीं है. सभी जगह मुझे ही खडा कर देते है. मैं तो उधोग प्रसार अधिकारी हूँ. मेरा यहाँ कोई काम नहीं है. ये हालात है प्रदेश में महानरेगा को लेकर चल रहे नव र्निवाचित सरपंचों के प्रशिक्षणों के. जहाँ अधिकारी नदारद है. और बोलने वाले बकवास कर खानापूर्ति कर रहे है.

नरेगा को लेकर कार्यशाला की सूचना थी. पूरे प्रदेश में अप्रेल माह के दौरान नव निर्वाचित सरपंचों को सरकार द्वारा दो दिवसीय कार्यशालाओं में प्रशिक्षण दिया गया. ये सोचकर कि कुछ अच्छी जानकारियाँ मिलेगी. नरेगा को और बेहतर जानने समझने का मौका मिलेगा. मैं भरतपुर जिले की एक पंचायत समिति में निर्धारित बताये समय जा पहुँचा. प्रदेश में इन दिनों सरकारी कार्यालयों का समय 9.30 बजे है. इक्का दुक्का लोग इधर उधर घूम रहे थे. सभागार का ताला लगा था. ये इंतजार बहुत लम्बा रहा. 11 बजे से कुछ सरपंचों ने आना शुरू किया. 12 बजे अतिथि आये. एक कोने में स्थायी रूप से कुर्सी पर रखी हुई सरस्वती प्रतिमा को माला पहनाई. दीपक तो जलते ही बुझ गया. शायद यही संकेत था प्रशिक्षण और उसकी गुणवत्ता का. कोई भी जिम्मेदार सरकारी नुमाईंदा वहाँ मौजूद नही. अतिथि भी बिना कुछ बोले, कहे, चले गये. सभागार में न तों माइक था और न ही प्रशिक्षण को बताने वाला कोई बैनर. शुभारम्भ की इस औपचारिकता में बुलाये 45 में से 23 सरपंच उपस्थित दिखे. जिनमें आठ महिलाऐं सहमी सी बैठी थी.

अब जिन्हें बोलना आता था उन्होंने बोलना शुरू किया. उनकी सूचना के अनुसार सरपंचों का ये पहला मौका था. ऐसे में परिचय सत्र जरूरी था. बिना अपना परिचय दिये उन्होंने सबका अता पता पूछा. जब एक सज्जन ने कहा कि वो तो सरपंच पति है. तो एक मजेदार बात हुई. ‘‘ अरे आप अपना परिचय जरूर दो. भाई आगे काम तो आप ही से पडेगा’’ 30 मिनिट का परिचय सत्र 8 मिनिट में पूरा हो गया. धीरे से एक सरपंच ने इतना ही कहा. हमसे तो पूछ लिया अपना कुछ बताया नहीं. उनकी बात किसी ने नहीं सुनी. सुनता भी कौन,एक वो ही बोलने वाले थे. जिन्हें खुद के बोलने से फुरर्सत मिले तो वो किसी और की सुनें. इस बीच दूसरे एक कर्मचारी ने उपस्थित जनों को दो सरकारी किताबें, एक पैड और पेन देकर जैसे तैसे दस्तखत करा लिये. लेने वालों ने उलट पुलट कर देखा और कोई जरूरी चीज समझकर अपने पास रख लिया.

अब बारी आई. पंचायत समिति के नरेगा कार्यकम अधिकारी की. दो साल से नरेगा को अपनी उँगलियों के इशारे चलाने वाले, दर्जनों मामलों की जाँच कर चुके उन सहाब ने एक सरकारी किताब को अपने हाथ में ले लिया. और लगे नरेगा का क ख ग बोलने. सबसे पहले राजस्थान के मुख्यमंत्री की ओर से चुने हुये सरपंचो को बधाई दी. साथ में अपनी ओर से भी जोड दी. फिर लगे फर्राटे से किताब पढने. एक पन्ना जल्दी जल्दी पढ दिया. सामने बैठे 4-6 को छोड दिया जाये तो किसी को नहीं पता चला कि उन्होंने कहा क्या है? पीछे से ,सुनाई नहीं दे रहा,ऐसी कुछ आवाज भी आई मगर एक बार फिर उसे किसी ने नहीं सुना. इस बीच जाँब कार्ड का बनना, काम माँगना, काम कराना और हरित राजस्थान,राजीव गाँधी केन्द्र जैसे महत्वपूर्ण जानकारियाँ दी जा चुकी थी. किताब के पढने के बीच कहीं नरेगा में ठेकेदारों से सामान सप्लाई कराने और टैण्डर होने जैसी बातें आ गई. जो सरपंच पहले से जानकारी रखते थे, या कहें अब सरपंच पति के रूप बैठे थे, ने बात को पकड लिया. यहाँ गौरतलब बात ये है कि सरकार ने प्रदेश भर में टैण्डर प्रक्रिया ये सामान सप्लाई की कार्यवाही शुरू की हुई है. लेकिन सरपंचों के विरोध के चलते अभी तक ये प्रक्रिया पूरी नहीं हो पाई है. आगामी दिनों में इसके फिर होने की संभावना है. इस बात की जानकारी मिलते ही सरपंचों के बीच फिर से कानाफूसी शुरू हो गई. और बोलने वाले सहाब ने कार्यक्रम अधिकारी से कमान अपने हाथ में ले ली.इसी गपशप के बीच 1.30 हो गये.

अब एक जरूरी सूचना दी गई. आपको भूख लग आई होगी. हमने आपके लिए खाने की व्यवस्था की है. पीछे खाने के पैकेट रखे है अब आप खाना खा ले. कुछ और बातें बाद में करेगें. पूडी,तीन सब्जी और मिठाई. ये था खाने का पैकेट. सरपंच साहिवानों ने पैकेट लिये. कुछ ने तो एक से अधिक पर भी हाथ मारा. पति और बच्चे जो साथ थे. कर्मचारियों ने भी अपने हिस्से को कहाँ पीछे छोडा. खाना ही तो था. फिर भी कुछ पैकेट कार्टून में बच गये. इस बीच शिक्षकों के एक बडे समूह ने आकर सभागार को अपने कब्जे में ले लिया. वहाँ भी होने वाले किसी प्रशिक्षण में खाने के मीनू को लेकर खींचतान होने लग गई. सरपंच तब तक बाहर जा चुके थे.

हमने बोलने वाले सहाब से आगामी सत्रों के बारे में जानकारी ली तो उनका साफ कहना था. अब सरपंच ही लौट कर नहीं आयेगें. अब तो कल ही होगा. कुछ लोगों को बोलने के लिए बाहर से बुलबाया है. आज तो यहाँ और कोई है भी नहीं. पंचायत समिति में वैसे नरेगा के तीन जेईएन,एईन,और दर्जनों अधिकारी कर्मचारी है. मगर प्रशिक्षण कक्ष की ओर किसी ने आना जरूरी नहीं समझा. हमने नरेगा के ही एक सज्जन से पूछा तो उनका जबाब बडा सटीक था. ‘‘ सरपंचों को सब पता है क्या और कैसे करना है. इन्होंने भी लाखों रूपये चुनाबों में यों ही नहीं खर्च किये है. जब हमारे पास आयेगे तो सब समझा देगे. कि भरपाई कैसे होगी ’’ प्रशिक्षणों में क्या धरा है?
प्रशिक्षण का दूसरा दिन. समय सुबह के 10 बजे. प्रशिक्षण के सभागार पर अब भी ताला लगा था. 11.30 बजे ताला खुला तो हम भी अन्दर जाकर बैठ गये. इससे पहले बुजुर्ग सरपंच पूरन सिंह जाटव से मुलाकात हो गई. उनसे जब प्रशिक्षण के बारे में पूछा था तो उनके जबाब ने सारी स्थिति और अधिक स्पष्ट कर दी. ‘‘ काहे का प्रशिक्षण है. कमीशन दो और काम लो याई कौ प्रशिक्षण है ई." एक और सरपंच कल्लीराम जो पहले दिन नहीं आये थे हमने उनसे पूछा तो उनका भी साफ कहना था.‘‘ क्या हुआ कल नहीं आये तो. दस्तखत तो हो ही गये. सब फौरमल्टी है ’’ इनको अपने पैसे बनाने है और हमें पैसे देकर काम कराने है.
12 बजे एक बार फिर कल बोलने वाले सहाब आये. कमरे में झाँक कर देखा और 5 लोगों को बैठा देख चल गये. 12.20 पर आज विकास अधिकारी आये. इतने में सरपंचों की संख्या 12 हो गई. जिनमें 2 महिलाऐं. मौके की नजाकत देख उन्होंने बोलना शुरू किया. सबसे पहले तो पीछे बैठी महिलाओं को आगे बुलाया. फिर बोले. सरकार आपको ट्रेण्ड करना चाहती है. आपका पद बहुत उँचा है. जनता की आपसे बहुत उम्मीद है. आपको अपनी सोच के अनुसार गाँव का विकास करना है. इसके लिए नरेगा बहुत अच्छा है. इससे आप गाँव की कायापलट कर सकते है. इतने में पीछे से एक सरपंच बोले. ऐसी कोई बात बताओं जाते अपनी कायापलट होय. बहुत खर्चा हो गयो है. इस बीच फिर गपशप का दौर शुरू हो गया.

अब 1.30 का समय हो गया. भोजन की सूचना दी गई. भोजन के पैकेट बाँट दिये गये. लोग खाने में मशगूल हो गये. कार्यशाला के शुभारम्भ की ही तरह उसका समापन भी हो गया. हमने प्रशिक्षण के सरकारी बजट की जानकारी लेने की कोशिश में हाथ पैर मारना शुरू किया. बमुशिकल कुछ जानकारी मिली. जो मिली चौकाने बाली थी. प्रति सरपंच 45 रूप्ये की डायरी पैन. 100 रूपये भोजन. 20 रूपये किराया. 400 रूपये प्रति सत्र दक्ष प्रशिक्षकों का भुगतान. हजारों रूपये का अलग से प्रशासनिक व्यय. और भी कई खर्चे थे जिन्हें बताने वालों ने शायद नहीं बताया.

अब पंचायती राज के स्तर पर राजस्थान प्रदेश को समझने की कोशिश करते है. देश में क्षेत्रफल की दृष्टि से सबसे बडे प्रदेश में करीब 250 पंचायत समिति क्षेत्रों में लगभग 9200 ग्राम पंचायतें है. जहाँ नरेगा के ऐसे प्रशिक्षण कराये गये. इन प्रशिक्षणों में खर्चे के तौर पर करोडों रूपये के खर्च हुये. प्रदेश में हर एक महीने की 5 और 20 तारीख ग्राम पंचायतों की बैठक के लिए अनिवार्य रूप से तय तिथि है. जिस प्रशिक्षण की हमने यहाँ चर्चा की है. उसके समापन की तिथि भी 20 अप्रेल थी. आयोजकों ने इस बात का भी ध्यान नहीं रखा.

हमने तो बानगी के तौर पर एक प्रशिक्षण को नजदीक से देखने और समझने की कोशिश की थी. हम ये सोच सकते है कि और प्रशिक्षण इससे बेहतर हुये होगें. और ये भी हो सकता है कि इससे बदतर हालात रहे होगें जहाँ कागजों में ही खानापूर्ति कर दी गई होगी. सवाल यही से खडा होता है कि क्या ऐसे प्रशिक्षणों से राजस्थान का महानरेगा जो एक प्रकार से महाघोटाला बन चुका है कुछ उबर पायेगा. या हालात और बद से बदतर होते चले जाऐगें. इस प्रशिक्षण और दूसरे प्रशिक्षणों की जब स्थानीय अखबारों में फोटो सहित शानदार खबरें पढी तो एक दुख का कारण और सामने आया. कहीं अव्यवस्थाओं के लिए चौथा स्तम्भ भी तो जिम्मेदार नहीं है. मुझे तो ऐसा ही लगता है. आप के पास कोई और कारण हो तो मुझे भी बताना

Source वेब/संगठन: visfot.com

++राजस्थान में नर्क का दूसरा नाम है नरेगा

अगर भ्रष्टाचार नर्क है तो इस नर्क का दूसरा नाम नरेगा ही होना चाहिए. कम से कम राजस्थान की हकीकत यही है. देश के ग्रामीण विकास मंत्री सीपी जोशी राजस्थान से आते हैं. यही वह मंत्रालय है जो मनरेगा को देशभर में लागू करता है. लेकिन विडम्बना देखिए कि राजस्थान में मनरेगा के ऊपर जो भी सर्वे आ रहे हैं वे सब इसे भ्रष्टतम व्यवस्था साबित कर रहे हैं. पहले सोशल आडिट में यह बात सामने आयी और अब एक सर्वे नरेगा की पोल खोल रहा है.

हाल में ही हुए एक सर्वे में राजस्थान में सरकारी स्तर पर जिला प्रमुख और प्रधानों से ये जानने की कोशिश की गई कि क्या मनरेगा में महाधोटाला है? जब प्रधानों और सरपंचों से यह सवाल पूछा गया तो वे बेचारे सच कह गये. या फिर कहें कि प्रश्नावली में कुछ उलझ गये. प्रदेश के 87 फीसदी जिला प्रमुखों और प्रधानों ने मान लिया है कि नरेगा में महाघटिया स्तर के काम हो रहे हैं. इतना ही नहीं 98 फीसदी ने तो कह दिया कि ग्राम सभा में केवल खानापूर्ति के अलावा कुछ नहीं होता है.

ये सच बहुत कडवा है. लोकतंत्र की पहली सीढी है पंचायतीराज. जिसमें ग्राम पंचायत से जिला परिषद तक का पूरा तंत्र आता है. ग्राम सभा ही वो मंच है जो गॉव के विकास की इबारत लिखता है. ऐसे में पंचायतीराज के मुखिया ही ये कहे कि ग्राम सभा खानापूर्ति से अधिक कुछ नहीं है. तो सवाल खडा होता है कि आखिर हो क्या रहा है. और क्यों हो रहा है? इसके पीछे की कहानी बड़ी अजीब है. मनरेगा (महात्मा गांधी ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना का संक्षिप्त नाम) के आने के बाद पहली बार हुए पंचायतीराज के चुनावों पने इस बात को प्रमाणित भी कर दिया है. 20 जनवरी से ११ फरवरी तक चली पंचायतीराज की चुनाव प्रक्रिया में इस बार सरपंच, प्रधान और जिला प्रमुख बनने के लिए लाखों करोडों रूपये पानी की तरह बहाये गये. तो फिर वो ये क्यों न माने की नरेगा में भ्रष्टाचार है और ग्राम सभा एक औप चारिकता से अधिक कुछ नही है. विकास के लिए धन चाहिए. योजना का खाका चाहिए. फिर उसका क्रियांवयन. ऐसा कम ही होता है कि ये सब अधिकार किसी एक एजेंसी को मिल जाये. लेकिन है. नरेगा एक ऐसा ही विचार है. जिसने गॉव के लोगों को सीधे ही पैसा,योजना का खाका बनाना और उसका क्रियांवयन एक साथ करने का अधिकार दे दिया.

इस सर्वे में इन जन प्रतिनिधियों ने माना है कि मनरेगा के अन्तर्गत जिन आधारभूत सुविधाओं का ढिढोरा पीटा जाता है उतना जमीन पर है नहीं. 21 फीसदी का मानना है कि कार्यस्थल पर पानी की कोई व्यवस्था नहीं रहती है. 28 फीसदी का मानना है कि मैडीकल सुविधा के नाम खानापूर्ति होती है. 43 फीसदी का मानना है कि महिला श्रमिकों के बच्चों को पालना सुविधा तक उपलब्ध नहीं रहती है. तो 39 फीसदी का मानना है कि मजदूरों के लिए छाया की कोई व्यवस्था नहीं की जाती है. इतना तक तो ठीक है 42 फीसदी का तो ये कहना है कि नरेगा के पक्के कामों के लिए खरीदा गया सीमेंन्ट,बजरी,ग्रेवल का 20 प्रतिशत भाग तो कार्यस्थल से गायब ही हो जाता है. 53 फीसदी ने माना है कि नरेगा में फर्जी जॉब कार्ड है. जिला प्रमुख और प्रधानों ने महानरेगा के कामों में भ्रष्टाचार और लापरवाही के लिए भी मैटों को सबसे अधिक जिम्मेदार माना है. इनके साथ ही 22 प्रतिशत पीओ को, 13 प्रतिशत जेईएन, 8 प्रतिशत सचिव, 7 प्रतिशत सचिव, 6 प्रतिशत कलक्टर व डी ओ को तथा ४-४ प्रतिशत सीईओ व मजदूरों को जिम्मेदार माना है.

इस सर्वे में एक बात को बडी साफगोई से माना गया है कि मनरेगा में "रेवडियॉ" बंट रही है. वैसे रेवड़ियों को लेकर एक बडी प्रसिद्व कहावत भी है. "अंधा बाटैं रेवडी फिर फिर अपने न कू दे" कुछ ऐसे ही हालात नरेगा के है. सर्वे में शामिल जनप्रतिनिधियों में से 58 प्रतिशत से माना है कि मजदूरों को बगैर पूरा काम किये भुगतान मिल रहा है. इसके लिए वो जेईएन को जिम्मेदार मानते है. तो ४० प्रतिशत का मानना है कि इसके लिए मैट जिम्मेदार है. इस सर्वे की सबसे अहम बात ग्राम सभा को महज खानापूर्ति मानना है. वैसे तो महत्वपूर्ण मुददों तक में संसद की कुर्सियां तक देश में खाली दिखाई पड ही जाती है. सर्वे में शामिल लगभग सभी जनप्रतिनिधियों ने ये माना है कि ग्राम सभा केवल एक नाम की औपचारिकता है. पंचायत की बैठकों तक में कोरम पूर्ति नहीं होती है. कहने को गॉव के स्तर पर पारदर्शिता की बातें की जाती है. लेकिन जमीनी हकीकत ये है कि पंचायतीराज को आरक्षण के बाबजूद प्रभावशाली लोगों ने अपने हाथों में ले रखा है. जिससे कोरम मात्र खानापूर्ति बनकर रह गया है.

ऐसे में केवल धन और अधिकार देने मात्र से पंचायतीराज को मजबूत नहीं किया जा सकता है. जब तक गॉव की जनता खुद आगे आकर अपने मत और अधिकारों के प्रति जागरूक नहीं होगी. तब तक "गॉव की सरकार" जैसे जुमले गढे जाते रहेगें और अपने ही लोग जनता को बेबकूफ बनाते रहेगें. पंचायतीराज के इन जन प्रतिनिधियों ने एक बडी बात कहने की कोशिश की है. ९४ प्रतिशत का मानना है कि पंचायतीराज सस्थाओं के चुनाव लडने के लिए न्यूनतम शैक्षणिक योग्यता तय की जानी चाहिये. ७५ प्रतिशत का तो मानना है कि ये योग्यता १० वीं या उससे कहीं अधिक होनी चाहिये,और उसे भी अनिवार्य कर दिया जाना चाहिये. इन प्रधान और जिला प्रमुखों ने एक बात की ओर और इशारा किया है कि इन पदों के चुनाव भी सरपंचों की ही तर्ज पर सीधे कराये जाने चाहिये. ऐसा मानने वालों का प्रतिशत 72 है. और इस बात को लेकर के प्रदेश में एक पहल भी शुरू हो चुकी है. हाल ही में मुख्यमंत्री ने स्वंय इस बात को आगे बढाया है.

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