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संसद की एक समिति ने सुझाव दिया है कि फसलों के मौसम में मनरेगा के काम को रोक दिया जाना चाहिए ताकि श्रमिकों की कमी के कारण कृषि कार्य प्रभावित न हो। समिति का आकलन है कि मनरेगा के कारण खेती के लिए पर्याप्त मजदूर नहीं मिल पा रहे हैं। इसका दूसरा पहलू यह भी है कि खेती में काम करने वालों को उतनी मजदूरी नहीं मिल रही है जितनी मनरेगा में काम करने वालों को। यह ध्यान देने योग्य तथ्य है कि मनरेगा में सरकार द्वारा भी न्यूनतम मजदूरी ही निर्धारित है। हां, यह जरूर है कि ज्यादा काम करने वाला व्यक्ति मनरेगा में ज्यादा मजदूरी पा सकता है लेकिन खेती में नहीं। मनरेगा ने मजदूरों के पलायन को काफी हद तक रोका है, इसमें संदेह नहीं हैं। इससे पहले फसलों के मौसम में देश के अन्य हिस्सों से बड़ी संख्या में मजदूर पश्चिमी उत्तर प्रदेश, हरियाणा तथा पंजाब आदि की तरफ काम की तलाश में चले जाते थे, अब उन्हें अपने गांवों में ही कामचलाऊ काम मिल जाता है। नरेगा- जिसे अब मनरेगा नाम से जाना जाता है, के फरवरी 2006 में लागू होने के बाद से देखा गया कि उक्त राज्यों के बड़े किसानों को खासी असुविधा हुई तथा उन्हें श्रमिकों को सामान्य से दुगनी मजदूरी देनी पड़ी। देखा जाए तो मनरेगा ने न सिर्फ मजदूरों को उनके घर-परिवार के साथ रहने का अवसर दिया, बल्कि अधिक मजदूरी भी उपलब्ध कराई। यह उपलब्धियां मनरेगा की तमाम खामियों के बावजूद हैं। देश में कृषि जोतों का आकार लगातार घटता जा रहा है। राष्ट्रीय किसान आयोग की एक रपट के अनुसार देश के 66 प्रतिशत किसान ऐसे हैं जिनके पास एक हेक्टेयर से कम जमीन है और इस जमीन का भी बिक्री और बंटवारा होता रहता है। इस पर निर्भर रहने वाले किसान को प्राय: मजदूर की आवश्यकता नहीं पड़ती। वह परिवार के साथ मिलकर अपना काम कर लेता है। जोत छोटी होती जाने का परिणाम यह हुआ है कि 1980 में जहां 76 प्रतिशत लोग कृषि में समायोजित थे, वहीं 1994 में 65 प्रतिशत ही रह गए। अब यह प्रतिशत 50 के करीब होने का अनुमान है। दूसरी तरफ 2001 की जनगणना के के अनुसार श्रमिकों की संख्या लगभग 40.02 करोड़ है। नेशनल सैम्पल सर्वे तथा राधाकृष्णन आयोग (किसानों पर अध्ययन हेतु गठित) की रिपोर्टों का कहना है कि गांवों में जो आबादी रहती है, उसमें से 24 प्रतिशत के पास न कृषिभूमि है और न खेती का कार्य। यही लोग प्राय: काम की तलाश में पलायन करते थे जो काफी हद तक रूका बताया जा रहा है। ऐसे में किसे लाभ पहुंचाने की दृष्टि से मनरेगा का काम रोकने की सिफारिश की जा रही है? मनरेगा में पंजीकरण काम करने की बाध्यता नहीं है। जहां ज्यादा मजदूरी मिलती है, श्रमिक अपने आप वहां चला जाता है। एक इंजीनियर, डॉक्टर या वैज्ञानिक को तैयार करने में सरकार का लाखों रूपया खर्च होता है और इस प्रकार तैयार देश की प्रतिभाओं का लंबे अरसे से विदेशों को पलायन हो रहा है लेकिन आज तक किसी भी संसदीय समिति ने सिफारिश नहीं की कि इस पर रोक लगनी चाहिए? एक तरफ सरकार की नीति है कि पंचायत चुनाव नजदीक आ जाने या घोपित होने पर भी उनके बैंक खाते बंद न किए जाएं ताकि मनरेगा के अन्तर्गत श्रमिकों को निर्बाध काम मिलता रहे, दूसरी तरफ संसदीय समिति का सुझाव है कि फसली मौसम में मनरेगा का काम बंद कर दिया जाए ताकि किसानों को सस्ते मजदूर मिल जाएं। अफसोस की बात है कि जब भी खेती को लेकर नीति-निर्धारण किया जाता है तो किसान सिर्फ उनको माना जाता है जो सौ-दो सौ एकड़ जमीन के मालिक होते हैं। 66 प्रतिशत लघु व सीमान्त किसानों के हित अनदेखे कर दिए जाते हैं। मनरेगा के अंतर्गत काम की गुणवत्ता को लेकर जैसा हल्ला मच रहा है, उसमें क्या यह नहीं हो सकता कि इन श्रमिकों का उपयोग खेती में समायोजित कर उत्पादन बढ़ाने और लागत कम करने में किया जाए? वैसे भी आम किसान को लागत के अनुरूप लाभकारी मूल्य सरकार नहीं दे पा रही है। ऐसे में लागत कम कर किसानों को राहत दी जा सकती है। देश में जब कृपि-उपजों के दाम थोड़ा बढऩे लगते हैं और किसान को चार पैसे बचने की उम्मीद दिखती तो सरकार तुरंत या तो अपने गोदाम खोल देती है या महंगी दर पर उसे आयात करने लगती है। खाघान्न के अलावा अन्य जिंसों के दाम बढऩे पर सरकार ऐसी उतावली नहीं दिखाती। लोहा, सीमेन्ट आदि वस्तुओं के मामलों में यह देखा जा सकता है। देश के जिन हिस्सों में खेतिहर मजदूरों की कमी है, वहां उन्हें आकर्षित करने के उपाय बताए जाने चाहिए। बड़े किसान ज्यादा अर्जित करते हैं तो उन्हें खर्च भी ज्यादा करना चाहिए। किसी भी देश के लिए कृषि बाध्यकारी होती है। देश में उत्पादन घटने पर किस तरह समस्याएं खड़ी होती हैं यह हमने पहले दलहन-तिलहन फिर चीनी के मामले में देखा। एक सरकारी रपट के अनुसार खेती कर रहे लोगों में से 40 प्रतिशत लोग कोई विकल्प मिलने पर खेती छोड़ देना चाहते हैं। यह अच्छा संकेत नहीं है। सरकार बड़े किसानों का संरक्षण श्रमिकों का शोपण कर नहीं कर सकती। उसके पास धन और श्रमशक्ति दोनों हैं तो उसका उचित इस्तेमाल कर देश की रीढ़ समझे जाने वाले लघु-कृपि व श्रम-क्षेत्र को प्रोत्साहित कर सकती है। मनरेगा के धन का इस्तेमाल लघु व सीमान्त कृपि क्षेत्र में कार्य-अवसर उपलब्ध करा कर भी हो सकता है।

सौ. http://othentics.in

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