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नरेगा में संशोधन की जरूरत

यूपीए सरकार की सबसे महत्वाकांक्षी योजना नरेगा को 7 दिसम्बर, 2005 अधिसूचित किया गया था। इस कानून का लक्ष्य हर वित्तीय साल में प्रत्येक गरीब परिवार के एक वयस्क परिवार को कम से कम 100 दिन का रोजगार सृजन वाला गैर-हुनर काम मुहैया कराना है। यानी नरेगा का उद्देश्य- हर हाथ को काम और काम का पूरा दाम दो। निश्चित ही, यूपीए सरकार का यह एक सराहनीय कदम था

2 फरवरी, 2009 में आन्ध्र प्रदेश के अंनतपुर जिले से शुरु हुई रोजगार गारंटी योजना अपनी शुरुआती चरण में देश के 200 जिलों से शुरु हुई थी। परन्तु योजना की सफलता को देखते हुए 1 अप्रैल 2008 से देश के बाकी जिलों को भी नरेगा से जोड़ दिया गया। यानी नरेगा अब पूरे देश में लागू है। देश के करीब 4.5 करोड़ गरीब एवं बेरोजगार परिवारों को सालाना 10,000 रुपये की आमदनी की पुख्ता व्यवस्था यूपीए सरकार ने अपने इस महत्वाकांक्षी योजना से करने का प्रयास किया है। निश्चित ही इसके द्वारा यूपीए सरकार ने देश से गरीबी और बेरोजगारी मिटाने का महत्वपूर्ण प्रयास किया है। यही वजह है कि यूपीए सरकार ने ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (नरेगा) पर फिर से भरोसा जताते हुए वित्तमंत्री प्रणव मुखर्जी के नेतृत्व में वित्त-वर्ष 2009-10 के बजट अनुमान में नरेगा के लिए 39,100 करोड़ रुपये का इंतजाम किया है, जो पिछले वित्त वर्ष के बजट अनुमान से 144 प्रतिशत और संशोधित अनुमान से 33 प्रतिशत ज्यादा है। अत: नरेगा केन्द्र सरकार की सबसे बड़ी योजना हो गई है। लेकिन मौजूदा सवाल यह है कि इस योजना को लेकर कुछ आशंकाएं अभी भी बरकरार है। जिस पर विशेष रूप से गौर करना बहुत जरूरी है।

निश्चित तौर पर गरीबों के लिए विकास के इतिहास में इससे पहले इस तरह की कोई इतनी महत्वपूर्ण पहल नहीं की गई थी। फिर भी, देश में गरीबों की संख्या में कमी के बजाय उनकी संख्या में और वृद्धि दर्ज की गई है। भले सरकार प्रत्येक वर्ष नरेगा पर करोड़ों रुपया व्यय कर रही है, ताकि देश में मौजूद गरीबी और बेरोजगारी की दर को कम किया जा सके और सभी को दो वक्त की रोटी आसानी से मुहैया कराया जा सके। परन्तु नरेगा के द्वारा न तो देश में गरीबी की दर कम हो सकती है, और न ही गरीबों को दो वक्त की रोटी नसीब हो सकती है। ताजा आंकलन के अनुसार देश में गरीबों की तादाद 28 प्रतिशत से बढ़कर 37.2 प्रतिशत हो गई है। इसका मतलब है कि 11 करोड़ लोग गरीबी रेखा के नीचे सरक गए हैं। यानी वर्तमान समय में देश का हर तीसरा नागरिक गरीबी रेखा के नीचे जिंदगी बसर कर रहा है। यह आंकलन प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद के अध्यक्ष रह चुके सुरेश तेंदुलकर कमेटी का है। यह तो सरकारी आंकड़ा है, लेकिन असलियत क्या है इसका अंदाज तो सेनगुप्ता कमेटी रिपोर्ट से मिलता है। उसके अनुसार भारत के 77 फीसदी लोग 20 रुपये रोज पर गुजारा करते हैं। सवाल यह है कि किसे सही माना जाए? तेदुंलकर को या सेनगुप्ता को? गरीबों के लिए इससे बड़ा मजाक और क्या हो सकता है कि उनके देश में उनका सही आंकलन नहीं हो पाता है। ऐसे देश में गरीबों के लिए बनी योजनाएं कितनी कारगर होंगी, इसका अंदाजा आप खुद लगा सकते हैं।

पर मौजूदा सवाल यह है कि देश में गरीबी को आंकने के जिन नए तौर तरीकों को अबतक अपनाया गया है उसके मद्देनजर नरेगा क्या वास्तव में गरीबों के लिए आजीविका की योजना है। यही सवाल नरेगा के सामने आता है। भारत में सदैव से संयुक्त परिवार की प्रथा चली आई है। और संयुक्त परिवार प्रथा में चार से चालीस सदस्य होते हैं, जिनका खाना एक ही चूल्हे पर बनता है। तो एक जाब कार्ड से 40 सदस्यों की खाद्य सुरक्षा को कैसे सुनिश्चित किया जा सकता है। रोजगार गारंटी कानून के प्रावधान इस संदर्भ में स्पष्ट बयान करते हैं कि माता-पिता और दो बच्चों की प्रत्येक इकाई को एक परिवार माना जाएगा और उन्हें एक जाब कार्ड निर्गत किया जाएगा। लेकिन व्यावहारिक रूप में चार से ज्यादा सदस्यों के परिवार को भी एक ही कार्ड दिया जा रहा है।

ऐसे में क्या हमें यह मान लेना चाहिए कि 100 दिन के रोजगार से किसी गरीब परिवार के 365 दिन की आजीविका सुनिश्चित हो सकती है।

इसके अलावा नरेगा के क्रियान्वयन को लेकर भी समय-समय पर सवाल उठते रहे हैं। मसलन कहीं जाब कार्ड बन जाने पर भी काम न मिलने की शिकायत है, तो कहीं पूरे सौ दिन काम न मिलने की और कहीं हाजिरी रजिस्टर में हेराफेरी की। वहीं दूसरी ओर कई राज्यों में यह योजना भष्ट्राचार के अधीन हो गई है। इस तरह यदि किसी परिवार को 40 या 50 दिन ही रोजगार मिलता है, तो ऐसे में परिवार का गुजारा कैसे सुनिश्चित किया जा सकेगा? अगर हम कानून के क्रियान्वयन पर सवाल न उठाकर यह मान लें कि हमारी सरकार ने हमें 100 दिन की मजदूरी दे भी दी है तो क्या गरीब परिवार गरीबी रेखा से बाहर निकलकर उस इंडिया में शुमार हो जायेंगे जिसमें 25-30 करोड़ लोग रहते हैं। यदि प्रति परिवार को 100 दिन का रोजगार मिल भी जाता है तो 100 दिन की न्यूनतम राशि 100 रुपये के हिसाब से 10,000 रुपये प्रति चार सदस्यीय परिवार को एक वर्ष में मिलती है। इसका मतलब है कि चार सदस्यीय परिवार के प्रत्येक सदस्य के हिस्से में प्रतिवर्ष 2500 रुपये, प्रतिमाह 208.33 रुपये एवं प्रतिदिन 6.93 रुपये की राशि आती है। इस राशि से यह साफ स्पष्ट है कि एक परिवार तो दूर एक व्यक्ति की भी खाद्य सुरक्षा को प्रतिदिन सुनिश्चित नहीं किया जा सकता है।

सवाल अहम यह है कि सरकार ने नरेगा योजना किस पैमाने को आधार मानकर बनाई है। यहां एक तरफ देश में प्रतिदिन 20 रुपये से कम आय वाले व्यक्ति को गरीबी की श्रेणी में रखा है। वही नेरगा के अन्तर्गत आय का जरिया प्रति व्यक्ति मात्र 6.93 रुपये की राशि है। ऐसे में नरेगा जैसी योजना का क्या औचित्य रह जाता है। क्योंकि नरेगा की राशि से गरीब न तो दो वक्त की रोटी जुटा सकते हैं, और न ही सरकार गरीबी की बढ़ती तादाद को रोक सकती है।

हम जरा सोचें कि अगर कोई इंसान, इंसान की तरह रहना चाहे तो उसे कम से कम क्या चाहिए? रोटी, कपड़ा और रहने के लिए घर चाहिए ही चाहिए। बीमार पड़ने पर दवा भी चाहिए और अगर मिल सके तो अपने बच्चों के लिए शिक्षा भी चाहिए। क्या नरेगा की इस राशि से यह सबकुछ संभव है। अत: नरेगा के प्रतिदिन के 6.93 रुपये की राशि से इंसान का पेट भरना तो दूर एक पालतू जानवर का भी पेट नहीं भरा जा सकता है। यही कारण है कि आज देश में करीब 24 करोड़ लोगों को एक वक्त भूखे ही सोना पड़ता है। वो इसलिए कि वे इंसान हैं। गरीब परिवार में कभी बाप भूखा सोता है तो कभी मां और कभी-कभी बच्चों को भी इस पीड़ा से गुजरना पड़ता है।

अत: यह एक गंभीर एवं चिन्ता का विषय है कि देश में गरीबों ने अपनी पहचान बनाने के लिए लंबी लड़ाई लड़ी और काफी मुश्किलों के बाद वे 100 दिनों के रोजगार के हकदार बने। किन्तु गरीबों के साथ यह विंडबना रही कि इसके बाद भी वह गरीबी रेखा से ऊपर नहीं आ सके। इसीलिए जरूरी है कि अब नए सिरे से नरेगा पर फिर से विचार किया जाये। साथ ही नरेगा की मजदूरी दर में सुधार किया जाए। इसके अलावा नरेगा में सौ दिन काम की गारंटी की संख्या को भी बढ़ाया जाए। ताकि वास्तव में देश से गरीबी और बेरोजगारी को इस योजना के द्वारा खत्म किया जा सके। अन्यथा सरकार की सबसे महत्वाकांक्षी योजना पर हमेशा सवाल खड़े होते रहेंगे।

Source:-रवि शंकर,www.bhartiyapaksha.com

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